खामोशियो के सन्नाटे में
चीखें जिनसे मैं बना हूँ |
सबसे तेज चीख तो सत्य की होती है :
उसे अनसुना कर मैं कहता हूँ -
"अरे यह सन्नाटा क्यों हैं ?"
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जिसे मंज़िल समझ चला था
वहां ना कुछ था न कुछ है -
बस, चाहतों की छल-भरी आहटें |
की कभी इधर चलना है, तो कभी उधर
भटकते राहों के बाहों से निकलकर
कभी जीना सीखा है मैंने ?